सत्य व्यास की पुस्तक बनारस टॉकीज़ (हिंद युग्म, 2015) की राहुल विश्नोई समीक्षा प्रस्तुत करते हैं।
प्रसिद्धि एक फिसलन भरी सडक़ है। तेज़ भी भागना है पर गिरना भी नहीं चाहते हैं। फिर ऐसा करिये की उकड़ियों बैठ जाइये और चप्पलों को हाथों में लेकर ख़ुद को आगे ठेलिये। कद भले ही छोटा हो जाएगा पर मंज़िल तक जल्दी पहुँच जाएँगे। ३३०० से भी ज़्यादा ऐमज़ॉन रिव्यूज़ के साथ सत्य व्यास की बनारस टॉकीज आपको सफलता के शिखर पर हुंकार मारती दिख जाएगी। क़िताब का कवर आने वाली फ़िल्म की भी उद्घोषणा करता है। पर क्या प्रसिद्धी की मिठाई की चाशनी हमेशा मीठी होती है? ऐसा तो नहीं कि इस गुजिया में मावा नहीं रवा भरा हो? बाहर से चाँदी का वर्क पर अंदर से भुरभुरा बेस्वाद मसाला?
पूरा पकवान खा कर ही यह बता पा रहा हूँ कि हाँ वाक़ई ऊँचे बनारस का यह पकवान थोड़ा बेस्वाद रह गया है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लॉ हॉस्टल बी डी हॉस्टल के छात्रों की रोज़मर्रा की ग़ातिविधियों और गॉसिप से लेबरेज़ बनारस टॉकीज़ एक अत्यंत उम्दा किताब हो सकती थी पर ऐसा हुआ नहीं।
सत्य व्यास की बनारस टॉकीज़ के प्रेरणा स्रोत
शुरुआत के कुछ पृष्ठ एक इंजीनियरिंग कॉलेज पर आधारित काफ़ी सफल फ़िल्म से “इंस्पायर्ड” लगते हैं। चूँकि यह फ़िल्म अंग्रेज़ी के एक उपन्यास पर आधारित थी, तो क्या ऐसा सोचें कि लेखक उसी उपन्यास से प्रेरित हुए? वही रैगिंग, वही गर्ल्स हॉस्टल में छुप कर जाना, ये सब घटनाक्रम् काफ़ी पुराने अन्दाज़ में दिखाया गया है। रैगिंग को थोड़ा और प्रभावशाली बनाया जा सकता था।
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एक कॉलेज पर आधारित उपन्यास में लेखक चाहे तो कल्पना की ऊँची उड़ान भर सकता है। मनोरंजक किरदारों की भरमार पैदा कर सकता है। पर यहां लिफ़ाफ़े जैसे काग़ज़ी किरदार हैं जिनका नाम भी याद नहीं रहता। याद रहते हैं तो सिर्फ़ कुछ चुनिंदा मुहावरे जो सत्य व्यास जी ने बखूबी इस्तेमाल किए हैं।
खुरपी के ब्याह में सूप का गीत मत गाइये।
डायन को भी अपना दामाद प्यारा होता है।
क़ाज़ी बेक़रार और दुल्हन फ़रार।
हाथी हाथी हल्ला और हुआ कुक्कुर का पिल्ला।
एक संवाद-आधारित कहानी
किताब के साथ मुख्य समस्या है कि यह कहानी-आधारित नहीं, संवाद-आधारित है। किरदारों के आपस की बातचीत से कहानी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। कहानी का अंत थोड़ा विस्मयकारी है पर पाठक ख़ुद को ठगा सा महसूस करता है। किरदार एक दूसरे से इतना अधिक बात कर रहे हैं कि कभी कभी वो शब्द आपको अपने आस-पास सुनाई देते हैं।
वकीलों के हॉस्टल को शुरूआत में एक किरदार की तरह दिखाया गया है, बिल्कुल थ्री इडिअट्स की तरह, जहाँ एक किरदार बाकियों को प्रस्तुत करता है । पर कहानी जब आगे बढ़ कर डायलॉग के सैलाब में कुछ खो सी जाती है तो यह हॉस्टल भी अपनी ही दीवारों में दफन सा जैसे हो जाता है। रह जाते हैं तो बस किरदार जो अपनी ही दुनिया में मगन हैं ।
कहानी के आरंभ में ही वही घिसा-पिटा रैगिंग का दृश्य जिसमें सीनियर अपने जूनियर छात्रों को गर्ल्स हॉस्टल जाकर एक ऐसी चीज़ चुरानी है जो सिर्फ़ लड़कियां ही इस्तेमाल करती हैं। हलवाइयों की वेशभूषा में दो पात्र हॉस्टल में जाते तो हैं पर यह परिस्थिति जिसमे काफ़ी ड्रामेटिक होने की संभावना थी सिर्फ़ एक रवे की गुजिया हो कर रह गई । कहानी अपनी महिला पात्रों से भी न्याय नहीं करती। सिर्फ़ रोमांस के लिए ही उन्हें रख छोड़ा है।
बनारस के नामी कॉलेज के छात्र हैं तो गाली भी देंगे। किताब जेन्युइन होने के चक्कर में काफ़ी गलसंडी हो गई है- अर्थात् उत्तर प्रदेश की हिन्दी में बोलिए तो गालियों से भरी हुई। अंग्रेज़ी के संवाद ज़बरदस्ती हिन्दी के बीच घुस आते हैं। कुछ जगह तो यह काफ़ी कर्कश प्रतीत होता है। इसे थोड़ा कम किया जा सकता था।
निष्कर्ष
बनारस में रहे लोगों को ज़रूर अपने शहर की याद दिलाएगी सत्य व्यास की यह पुस्तक। मंदिर, लंका मोहल्ला और भी काफ़ी स्थानों को कहानी में जगह दी गई है। बनारसी हैं तो ही शायद ये किताब आपको अपनी-सी लगेगी। ज़्यादा उम्मीद ना करियेगा।